बचपन से जवानी और फिर बालों में सफेदी झलकने तक, व्यक्तिगत आदतें, रुचि और जीवन शैली बदलती रहती हैं। परंतु कुछ आदतों में वक़्त के साथ भी कोई परिवर्तन नही होता। मेरे लिए वो आदत है सुबह नाश्ते के समय रेडियो पर संगीत सुनना। पिछले पांच दशकों से ये आदत आज भी दिनचर्या का अटूट हिस्सा है। पहले शॉर्ट वेव पर रेडियो सीलोन चलता था और अब एफ.एम पर वो स्टेशन tuned रहता है जहां से 80 के दशक के पहले के गीत बजते हैं। पता नहीं क्यों आज के गीत दिल में नहीं उतर पाते हैं। शायद इसलिए कि वो काफी अल्पायु होते हैं। ज्यादा से ज्यादा छह महीने की उम्र लिए।वहीं लगभग छः दशक पुराना गीत, “मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया” आज भी मन में सिहरन पैदा कर देता है और हर बार सुनने पर जीवन को जीने का फिर से एक नया फलसफा देता है। गीत संगीत का वो स्वर्णिम दौर तो शायद अब कभी ना लौटे, किन्तु मेरी इस मान्यता पर एक प्रहार तो हुआ ही कुछ समय पहले।
हुआ यूँ के एक सुबह, रोज़ की तरह नाश्ता करते हुए रेडियो लगाया । किसी ने पहली शाम, शायद एफ.एम का कोई ऐसा चैनल tune कर दिया था जिस पर नए गीत बजते हैं। जो गीत बज रहा था उसके बोलों को सुन कर मैं अनायास ही ठिठक गया और नाश्ते का अगला कौर मुंह में जाते जाते रह गया। जैसे जैसे बोल कानों में उतरते जा रहे थे पूरे शरीर में सिहरन सी होती जा रही थी और अन्तरे के अंत तक आते आते आँखों में नमी स्वतः ही उतर आई थी
“ओ माई मेरी क्या फिक्र तुझे
क्यूँ आँख से दरिया बहता है
तू कहती थी तेरा चाँद हूँ मैं
और चाँद हमेशा रहता है
तेरी मिट्टी में मिल जावाँ
गुल बण के मैं खिल जावाँ
इतनी सी है दिल की आरज़ू
तेरी नदियों में बह जावाँ
तेरे खेतों में लहरावाँ
इतनी सी है दिल की आरज़ू
तेरी मिट्टी में मिल जावाँ…”
ऑफिस जाने की जल्दी थी इसलिए पूरा गीत तो न सुन सका, लेकिन पूरे दिन कानों में उस गीत के अंतरा के बोल गूंजते रहे। काफी समय बाद किसी नए गीत ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया था। शाम को ऑफिस से लौटने के उपरांत , फुरसत के लम्हों में, मुझे सुबह सुने उस गीत के बारे में जानने की उत्कंठा हुई। मैंने पहली बार इस गीत को you tube पर सुना, कानों पर हेडफोन लगा कर। इस गीत के बोलों में कुछ ऐसी कशिश थी कि इस गीत के रचयिता के बारे में जानने की इच्छा हुई। गूगल महोदय से जानकारी मिली कि 2019 में रिलीज़ हुई, फ़िल्म केसरी के इस गीत के गीतकार जनाब मनोज मुंतशिर हैं। खैर बात आयी गयी हो गयी।
कुछ समय पहले YouTube पर अपने पसंदीदा कार्यक्रम “ज़िंदगी विद ऋचा” में मनोज मुंतशिर के इंटरव्यू का नोटिफिकेशन (ज़िन्दगी विद ऋचा सब्सक्राइब्ड किया हुआ है मैंने) पा कर बिजली की चमक सा वो गीत गूंज गया ज़ेहन की गलियों में और मुंतशिर साहब के बारे में जानने की उत्कंठा तीव्र हो उठी। ऋचा अनिरुद्ध की सहजता में हम स्वयं भी जैसे मनोज मुंतशिर के जीवन के अनछुए पहलुओं के साक्षी हो रहे थे। ऋचा की मनमोहक मुस्कान के साथ पूछे प्रश्नों का, उतनी ही मनमोहक मुस्कान के साथ पूरी ईमानदारी और बेबाकी से जवाब देते मनोज मुंतशिर ने हमें तुरंत ही अपना बना लिया। साहिर, कैफ़ी, मज़रूह, शकील, गुलज़ार, फ़िराक, वसीम बरेलवी आदि के प्रशंसकों को कोई प्रभावित कर ले तो ये पक्का है कि बंदे में कुछ तो दम होगा ही।
उस इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि कैसे उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के पास स्थित छोटे से कस्बे गौरीगंज (अमेठी के पास) के, एक कृषक परिवार में जन्में मनोज शुक्ला, बिना धर्म परिवर्तन किए मनोज मुंतशिर बन गये। उसके अलावा उस लंबे इंटरव्यू में उन्होंने अपनी संघर्ष गाथा के साथ ही स्वविश्वास का बहुत ही ईमानदारी से उत्तर दिया है। इसी इंटरव्यू के माध्यम से मुझे पता चला कि फ़िल्म धोनी का दिल को छूने वाला गीत “कौन तुझे यूँ प्यार करेगा”, कौन बनेगा करोड़पति की स्क्रिप्ट, इंडिया गॉट टेलेंट, इंडियन आइडियल जूनियर, बाहुबली 2 का हिंदी version उन्होंने ही लिखा है। मैं उनकी भाषा के उच्चारण से विशेष प्रभवित हूँ चाहे वो हिंदी हो,उर्दू हो या कि फिरअंग्रेज़ी हो। दिनकर की रश्मिरथी से लेकर ग़ालिब के कलामों तक, नरोत्तम दास की अवधी में कृष्ण सुदामा प्रकरण से लेकर साहिर लुधियानवी की परछाइयाँ तक में, उनका अंदाज़ ए बयां व उनकी भाषा पर पकड़ अद्वितीय है। मैं ये दावे के साथ कह सकता हूँ कि इतना धाराप्रवाह, त्रुटिहीन वाचन वर्तमान में बहुत ही कम वक्ताओं में मिलता है। एक लेखक, एक शायर, एक गीतकार, इतना अच्छा किस्सागो भी हो सकता है ये गुण कल्पनातीत है।
मनोज की ईमानदारी उनकी चमकती आंखों, निश्छल मुस्कान और बिना लाग लपेट के, आडम्बरहीन परंतु समृद्ध भाषा में साफ झलकती है। आज वो बॉलीवुड के शीर्ष लेखकों और गीतकारों में हैं परंतु उनकी सहजता और सरलता मन को छू जाती है। इतना व्यस्त होने के बाद भी YouTube पर उनका प्रेमचंद की कहानियों व अन्य शीर्ष लेखकों की कथाओं का वाचन, मूर्धन्य शायरों की शायरी का भावपूर्ण विवेचन, हिंदी साहित्य के अमूल्य रत्नों की रचनाओं का भावपूर्ण पठन ये दर्शाता है कि हिंदी – उर्दू साहित्य में उनकी कितनी गहरी पैठ व प्रतिबद्धता है। लेखन के क्षेत्र में, इतनी कम उम्र में (लगभग 44 वर्ष), इतनी उपलब्धियां तभी हो सकती जब माँ सरस्वती का पूर्ण आशीर्वाद हो और लेखक अभिमान, आडंबर और दंभ से दूर हो।
मनोज मुंतशिर का प्रण है कि वो कभी किसी अवार्ड फंक्शन में शिरकत नही करेंगे क्योंकि उनके रचे गीत “तेरी मिट्टी में मिल जावां” को एक रैप सॉंग से कमतर आंका गया। ये उनके स्वाभिमान को दर्शाता है। मैं मनोज से कहना चाहता हूँ कि “तेरी मिट्टी….” जैसे गीत, जब माँ सरस्वती साक्षात आशीर्वाद देती हैं तभी रचे जाते हैं। इंसानी कुव्वत कहाँ कि ऐसी किसी रचना का आकलन कर उसे पुरस्कार दे सके। जो अमूल्य है उसका मोल कौन लगा सकता है.”तेरी मिट्टी …”तो अनमोल गीत है। अच्छा हुआ उसका दाम लगा कर उसे पुरस्कृत नही किया गया।
क्या कोई फ़िल्म हकीकत के गीत “कर चले हम फिदा जान ओ तन साथियों” का मूल्य लगा सकता है? 1964 के इस iconic गीत को उस वर्ष फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड्स में नॉमिनेशन तक नही मिला था। इसी प्रकार से 1961 की फ़िल्म हम दोनों के गीत “मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया” को भी फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड्स में नॉमिनेशन तक नही मिला था। ये दोनों ही गीत अमूल्य धरोहर हैं अच्छा हुआ इनको पुरस्कार की तराजू में नही तोला गया। शायद ये भी किसी ईश्वरीय शक्ति के हस्तक्षेप से ही हुआ होगा।
मनोज, आप मुंतशिर (तितर- बितर, अस्त – व्यस्त या disorganized) नहीं बल्कि बहुत ही व्यवस्थित और सहज लगे मुझे।
मनोज से एक बार मिलने की व गुफ्तगू करने की तमन्ना हमेशा रहेगी मेरे हृदय में… क्योंकि
“बंदे में है दम”
09.01.2021
लेखक: अतुल कुमार गर्ग
बरेली (उ.प्र.)
ईमेल: atulgarg4662@gmail.com
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