आपने “Interstellar” देखी होगी। “Gravity” भी। क्या महसूस हुआ था उन्हें देखते हुए? मुझे तीन बातें महसूस हुई। पहली कि मानव मन की कल्पना शक्ति और उसका ज्ञान जब हाथ थाम लेते हैं तो वह कुछ ऐसा रचता है, जिसमें भविष्य की झलक और उम्मीद होती है। दूसरी कि जब कोई चीज़ बहुत शोध के साथ बनाई जाती है, जिसमें हर स्तर पर मेहनत और विज़न शामिल होता है तो उसकी अपील यूनिवर्सल होती है। मसलन ग्रैविटी फिल्म में एक सीन है, जब अंतरिक्ष में भटक रही यात्री को धरती से कुछ सेकेंड के लिए कनेक्ट करने का मौका मिलता है। शायद वो चीन या जापान के स्पेस स्टेशन से जुड़ जाती है और वहां का कोई सदस्य उसे कुत्ते की आवाज़ सुनाता है। सैंड्रा बुलक उस कुत्ते के साथ आवाज़ से आवाज़ मिलाती है। आप उस सीन का हिस्सा बन जाते हैं। यह सिनेमा की खूबसूरती होती है जो आपको उस दुनिया में ले जाता है और बसा देता है जिसके बारे में आपने सोचा भी नहीं था। सिनेमा आपको केवल मनोरंजन नहीं देता आपको विज़न देता है। आपकी कल्पना में रंग भरता है। तीसरी बात ऐसी फिल्में देखते हुए आती हैं कि हमारे यहां क्यों नहीं बनती ऐसी फिल्में? अब ये जो तीसरा सवाल है यही बड़ा जटिल है। आप कहेंगे कि हम तुलना नहीं कर सकते। हमें तुलना नहीं करना चाहिए। बिल्कुल नहीं करनी चाहिए। फिर हमें अपनी फिल्मों के लिए किसी विदेशी पुरस्कार से नवाजे जाने का ख़्वाब नहीं सजाना चाहिए क्यूंकि हमारे पास वो विज़न ही नहीं है। विज्ञान, अंतरिक्ष, तकनीक पर आधारित फिल्में यूं ही नहीं बन जाती। उसके लिए विज्ञान को जीवन का हिस्सा मानना पड़ता है। उसके साथ जीना पड़ता है। क्या आप उन कलाकारों और निर्देशकों से ऐसे सिनेमा की उम्मीद कर सकते हैं जिनका साहित्य, विज्ञान, अंतरिक्ष का ज्ञान शून्य है। हमें सुशांत के जाने का दुख क्यूं होना चाहिए। इसलिए नहीं कि वो किसका शिकार बना। उसे क्या दुख था। यह तो ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब अब हमें नहीं ढूंढ़ना चाहिए। सुशांत के जाने का इसलिए दुख होना चाहिए क्योंकि सुशांत उन चंद अभिनेताओं में से थे जिनके पास विज़न था। वो अनुभूतियां थीं जो हिन्दी सिनेमा में कुछ नया रच सकती थीं। उन अनुभूतियों और उस चेतना के जाने से हमारा बहुत नुकसान हुआ है। ऐसे ताज़ा विचार और आउट ऑफ द बॉक्स सोचने वाले लोग हमारे यहां कम हैं। जितने भी कलाकार आते हैं उनमें से ज़्यादातर एक रेस का हिस्सा होते हैं। बड़े निर्देशकों के साथ काम करना, पैसा कमाना, सौ करोड़ क्लब में शामिल होना। उसमें कुछ बुराई भी नहीं। उनका भी स्वागत। उन्हें भी कामयाबी मिले। पर आप जब सिनेमा धरोहर की बात करें तो माफ़ कीजिए सलमान की फिल्में उसमें नहीं गिनी जाती। इरफान, नसीर, स्मिता की गिनी जाती हैं। हमारा हिंदी फिल्म उद्योग स्मिता पाटिल और संजीव कुमार जैसे महान अदाकारों की रिक्तियां आज तक नहीं भर पाया। इरफान एक बहुत बड़ा शून्य छोड़ गए। आधी जवानी संघर्ष में होम करने वाले इरफान और जीते तो और सुख देते सिनेमा को। पर उनका संघर्ष और शरीर के साथ बेइंतहा लापरवाही ही उन्हें खा गई। और अब सुशांत। सुशांत जो निर्देशन करना चाहते थे, कुछ नया करना चाहते थे। उन्हें कामयाबी से ज़्यादा कुछ अलग करने की भूख थी। उनकी धोनी फिल्म के दो दृश्य-एक रेलवे स्टेशन वाला और एक इंडिया के हारने पर चाय बनाने वाला। ये दोनों सीन एक तरफ और सलमान, अक्षय, शाहरुख की पचास फिल्में एक तरफ। जो लोग सुशांत को औसत अभिनेता कह रहे हैं, उन्हें सोनचिरैया देखनी चाहिए और धोनी फिल्म सीन-दर-सीन देखनी चाहिए। और उसके लिए आपको खेल और खिलाड़ी पर हज़ार किताबों की जरूरत नहीं। आप सुशांत को देखते हैं, आप धोनी तक पहुंचते हैं। दुख इस बात का है कि हमने एक अदाकार नहीं खोया, एक ज़हीन ख़्वाब खो दिया है। एक विज़न खो दिया है। सबका अपना-अपना सिनेमा है । मुझे भी गोविंदा पसंद है, पर उसके सिनेमा को मैं सीने से नहीं लगा सकती। हम आपके हैं कौन मैंने भी कई बार देखी है, पर अपने बेटे के साथ मैं शायद उसे न देखना चाहूं।


एक सिनेमा केवल मनोरंजन होता है उसका अपना बाज़ार है, अपने फैन। वो गलत नहीं है, पर वो सिनेमा हिंदी फिल्म उद्योग का चेहरा कतई नहीं होना चाहिए। हो नहीं सकता। करण जौहर की जो फिल्में सौ करोड़ की कमाई करती हैं वे क्या संदेश देती हैं कभी ये सोचिएगा। कुछ कुछ होता है, लड़के सुंदर लड़की से ही शादी करेंगे जो स्कर्ट पहने और आरती गाए। कभी खुशी कभी गम- लंबा पति होगा तो स्टूल लगा कर ही सही पत्नी को वहां तक पहुंचना होगा। वो झुकेगा या बैठेगा नहीं और टाई खुद नहीं बांधेगा। उसकी फिल्म की खूबसूरत लड़कियां इतनी बेवकूफ होंगी कि वे मेपल के पेड़ से सेब तोड़ेंगी और ढ़ाई और दो रुपए में अंतर नहीं कर पाएंगी। होमो सेक्सुअल लोग बहुत अजीबोगरीब और सेक्स के भूखे होंगे और जवान लड़के लड़कियां कॉलेज केवल प्यार, पार्टी और सेक्स के लिए जाएंगे। अगर ये सिनेमा आपका धरोहर है तो आपको गंभीरता से सोचने की जरूरत है। आपको सत्यजीत साहब का सिनेमा यक (yuck) लगता होगा, आर्ट फिल्में अंधेरी और उबाऊ। श्याम बेनेगल साहब आपको बोझिल लगते होंगे। ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों में केवल चुपके-चुपके या खूबसूरत को ही आप उनका सिनेमा मानते हैं, तो मैं पूरे दावे के साथ कह सकती हूं कि आप सिनेमा की दुनिया के वे छोटे बच्चे हैं जिसे अपने हाथ में पकड़ा लॉलीपॉप चांद नज़र आता है। पर जिस दिन आप चांद को ठीक तरह से समझ लेते हैं और तारों से आपको प्यार हो जाता है, विज्ञान में आपको मज़ा आने लगता है, साहित्य और कला जब वाकई आपके जीवन को मायने देने लगते हैं, तब अपना लॉलीपॉप फेंक देते हैं। अब आप ये लोलीपोप चूसते रहना चाहते हैं तो ये आपकी मर्ज़ी। पर यकीन मानिए साहित्य, सिनेमा, विज्ञान यह ऐसी चीजें हैं जो जुड़ाव और समय मांगती हैं। और ज़्यादा दूर न जाना हो तो अपना रीजनल सिनेमा देख लीजिए। न न भोजपुरी नहीं। तमिल, मलयालम, बंगाली, कन्नड़, मराठी। यहां जो बनता है न उसे समझने के ही लिए हिंदी फिल्मों के कलाकारों को बहुत पढ़ना-लिखना पढ़ता है, उनके बस की नहीं। आपको पता चलेगा कि हिंदी फिल्म उद्योग रेंग रहा है और उसे लग रहा है वो उड़ रहा है। इसलिए सुशांत या उसके जैसे कल्पनाओं और संभावनाओं से भरे इंसान का जाना हमें अखरना चाहिए।


ये कड़वी बात है इस उद्योग में पढ़े लिखे वैज्ञानिक चिंतन और कल्पनाशीलता वाले लोग वैसे ही मुट्ठी भर हैं। इसीलिए न्यूटन, मसान जैसी फिल्मों के नायकों पर जब तक बिग गैंग में जाने का ठप्पा न लगे उन्हें हीरो नहीं मानता कोई। अच्छी चीजों में और कोरे मनोरंजन में फर्क करना सीखिए। लॉलीपॉप और चांद में फर्क करना सीखिए। चांद आपको मिल नहीं सकता पर आपके जीवन को नए मायने और आपके सपनों को उड़ान इसी से मिलती है। बाक़ी आ रही होगी किसी चैनल पर हाउसफुल थ्री या दबंग, या कोई और, फिर आजकल तो नेटफ्लिक्स भी बहुत अच्छे शो बना रहा है। सब तरह की फिल्मों के दर्शक हैं, पर प्लीज़ सुशांत को एवरेज कहना बंद कीजिए वह कविता तो आधी ही रह गई। और नेपोटिज़्म पर क्या कहें मुझे तो अच्छे से बोलना भी नहीं आता। और कुछ स्टार किड वाकई प्रतिभावान हैं और उन्हें सोशल बुलिंग का शिकार नहीं बनाना चाहिए।
~Rajani Sen
Anchor & Journalist

Photo Courtesy: Internet

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