एक कल्पना कीजिए। सुबह आँख खुले और आपके घरों पर बुलडोज़र चलाया जा रहा हो, आपके घरों के साथ-साथ आपको भी जलाया जा रहा हो, मारा जा रहा हो। ना आपके रहने की कोई दूसरी व्यवस्था की गई हो, ना ही आपके मूल्यवान जीवन के बारे में ही सोचा गया हो। बहुत अमानवीय होगा ना यह? आपसे आपके घर, आपके परिवार छीन लिए जाएँगे तो आप क्या करेंगे?

आप बदले की भावना से, क्रोध से, मानसिक पीड़ा से भर उठेंगे। आप भूखे होंगे तो जहाँ खाना दिखेगा, जगह दिखेगी वहीं जाकर उसे हड़प लेना चाहेंगे।

जब भी युद्ध हुए, विभाजन हुए उन दिनों में कितने घर लूटे गए, कितनी चोरियाँ हुईं? हम इसे जस्टिफाई कर सकते हैं क्योंकि हम मनुष्य हैं। लेकिन जानवर यदि ऐसा ही करते हैं तो वे आदमख़ोर हो जाते हैं। हम उन्हें मारना अपना अधिकार समझने लगते हैं। अपनी झूठी मजबूरी और उथली संवेदना का परिचय देते हुए हम उन्हें मारने में भी कष्ट नहीं बल्कि गौरवान्वित महसूस करते हैं। कहते हुए – “ये तो हमारा इलाका है”।

पहले हमने उनके घर छीने, जंगल छीने, उनके परिवार मिटा दिए, मार दिए, जला दिए, कुचल दिए। अब जब वे हमारे इलाकों में आते हैं तो हम उन्हें मार डालते हैं कि “ये हमें परेशान कर रहे हैं”।

केरल में जंगली सुअर, हाथी, तेंदुए मर रहे हैं, हिमाचल में बंदर मारने के 1000 रुपए मिल रहे हैं, बिहार में नील गाय मार दी जाती हैं, बुंदेलखंड में भी वे जानवर जो हम मनुष्यों के खेतों में, इलाकों में आते हैं। जाने कितने राज्यों में अपनी ज़मीन, अपने घर, अपने खेत बचाने के लिए हम जानवर मार रहे हैं। और पृथवी के सबसे शक्तिशाली, बुद्धिमानप्राणी के पास इन सभी जानवरों से निपटने का एक ही उपाय है इन्हें मार डालना। क्योंकि हम बेचारे हैं, इतने बेचारे कि हमें निहत्थे, मूक प्राणियों की हत्या करनी पड़ती है। इनके लिए कोई नहीं कहता कि इनसे प्रेम से बर्ताव करो तो ये ऐसा कभी नहीं करेंगे।

घाटी में जब कच्ची उम्र के बच्चे सैनिकों पर पत्थर फेंकते हैं तो समझदार मनुष्य कहता है ये दोषी नहीं हैं, इनकी मनोदशा को समझो। इन पर जो ज़ुल्म हुआ ये बस उससे आहत हैं। जानवरों के लिए तो नहीं कहते कि इनके साथ अच्छा वर्ताव करोगे तो ये ऐसा कभी नहीं करेंगे?

कई ऐसी फ़िल्में देखीं जिनमें ग़रीबों के इलाकों को मिटाने पर सरकार के खिलाफ़ आंदोलन हो गए। लेकिन बात जानवरों की आए तो आंदोलन छोड़िए हमारे पास हज़ारों तर्क हैं उन्हें मारने के।

“हाथियों को बनाया नहीं जा सकता, वे एक बार विलुप्त हो गए तो समझो हमेशा के लिए गए।”

Elephants cannot be manufactured. Once they’re gone, they cannot be replaced.”

—Dr. Iain Douglas-Hamilton, DPhil, CBE, Founder and CEO of Save the Elephants

पिछले एक दशक में हाथियों की संख्या में 62% की कमी आई है। प्रतिदिन लगभग सौ अफ्रीकन हाथी मारे जाते हैं। यही हाल रहा तो अगले दशक तक ये पूरी तरह ख़तम हो जाएंगे। अफ्रीकन हाथियों की संख्या जहाँ 400000 बची है वहीं एशियन हाथियों की संख्या पूरी दुनिया में लगभग 40000। ये हाथी जो कई सहस्त्रावदियों से मनुष्य के साथ रहते आए हैं वे अचानक एक दशक में अपने अस्तित्व का संकट झेल रहे हैं। पिछले 8 साल में भारत में 750 बाघों की मृत्यु हुई है। ऐसा क्या बदल गया पिछले कुछ वर्षों में? हाथियों के दाँत, उनका माँस, बॉडी पार्ट्स बहुत महँगे दामों में बिकते हैं। चाइना में इसका तिगुना दाम मिलता है।

19 वीं सदी में जब श्रीलंका में हाथियों की संख्या में 65% की गिरावट आई तो वहाँ की सरकार ने उनकी सुरक्षा में कानून बनाया। आज श्रीलंका में हाथी को मारने की सज़ा मृत्युदंड है। और हमारे यहाँ पटाख़े खाकर हाथी मर जाए तो उसे “ग़लती से खा लिया होगा” कहकर मुक्त हो जाते हैं।

कुछ ही दशकों में ये हाथी, व्हेल, गौरैया और दूसरे कई प्राणी तस्वीरों में रह जाएंगे। तब अपने बच्चों के सामने हम गर्व से कहेंगे कि “देखो हम कितने शक्तिशाली हैं कि हमने कई प्रजातियों को ही जड़ से ख़तम कर दिया” और एक ज़ोरदार अट्टहास सर्व दिशाओं में गूँज जाएगा।

【डॉ इयान का कोट और जानवरों का डेटा कई अलग-अलग रिपोर्ट्स से लिया गया है】

Ankita Jain

Ex Research Associate, Author, Director at Vedic Vatica (Organic Agro Firm)

 

 

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