वनवासी कहूं तो आप के मस्तिष्क में छवि उभरेगी उन आदिवासियों की जो सदियों से जंगलों के बीच रहते आए हैं। पुरातन सभ्यता और परंपराओं के साथ जीवन यापन कर रहे हैं। वर्तमान शिक्षा प्रणाली को आधार मानें, तो संभवतः ये वनवासी उतने साक्षर ना हों, किंतु जीवन यापन के इनके तौर-तरीक़े, खान-पान, प्रकृति से तारतम्य बनाकर चलने की कला में यह प्रजाति अन्य साक्षरों से कहीं अधिक ज्ञान रखती है। आधुनिक भोग-विलासिता को आधार मानें तो ये वनवासी हमें ग़रीब जान पड़ेंगे किंतु स्वास्थ्य और सेहत के मामले में ये हमसे अधिक अमीर हैं। मैं यहाँ उनकी बात कर रही हूँ जो “पूरी तरह” वनवासी हैं। जो “अधर” में हैं वे अपनी स्थिति से उतने संतुष्ट नहीं मिलेंगे।

सोशल मीडिया पर जब भी कभी हरियाली की या ग्रामीण अंचल से जुड़ी तस्वीरें देखेंगे तो, उस पर अधिकांश कमेंट्स यही बताते हैं कि मेट्रोपोलिटन में रहने वाले लोग अपने भागमभाग एवं प्रदूषण भरे जीवन से छुटकारा पाकर ऐसे ही हरे-भरे किसी शांत से गाँव में रहकर अपना जीवन गुज़ारना चाहते हैं। वे ऐसा कर नहीं पाते क्योंकि गाँव में उन्हें कमाई के साधन और शिक्षा की उचित व्यवस्था नज़र नहीं आती। असल में वे आधुनिक, सर्वसुविधा युक्त ग्रामीण जीवन चाहते हैं जो असंभव सा जान पड़ता है। मोहन चावड़ा ऐसे ही कई लोगों के लिए प्रेरणा हो सकते हैं जो मेट्रोपोलिटन की ज़िंदगी छोड़कर किसी नदी के किनारे हरी-भरी ज़िंदगी जीना चाहता हो। मोहन और उनकी पत्नी रुकमणी ने अपनी दो बेटियों के साथ शहर के जीवन को अलविदा कहा और 2015 में केरल के पलक्कड़ जिले में भरतपुजहा नदी के किनारे एक नई दुनिया बसाने का संकल्प लिया। वे अकेले नहीं आए बल्कि उन्होंने 14 अपनी ही तरह की सोच रखने वाले परिवारों को प्रेरित किया और मिलकर ज़मीन ख़रीदी। मोहन जोकि ख़ुद एक मूर्तिकार थे और उनकी पत्नी जोकि नर्सिंग महाविद्यालय की प्रिंसिपल थीं, ने अपनी बेटियों की सहमति के साथ आधुनिक शिक्षा की ढ़र्रे वाली प्रणाली को तिलांजलि दी। आज उनकी बेटियाँ जो अपने विद्यालयों में अव्वल रह चुकी थीं, शिक्षा के अन्य माध्यमों को चुनकर अपनी शिक्षा पूरी कर रही हैं। उनकी प्रथम शिक्षा प्रकृति के साथ, प्रकृति के बीच रहकर हो रही है।

मोहन ने पहले अपने लिए एक ट्री हाउस बनाया था जिसमें वे अपने परिवार के साथ रहने लगे। उन्होंने वहाँ फलों के वृक्ष एवं सब्जियों की बगिया तैयार की। तत्पश्चात उन्होंने मिट्टी के घर बनाए। मैं जब इनके बारे में पढ़ रही थी तो मुझे अपने आसपास के आदिवासियों के वे घर याद हो आए जो काली मिट्टी से बने होते हैं। एक आकार में, सुंदर, चमकदार। हर घर के साथ एक छोटी सी बगिया होती है जिसमें वे कुछ ना कुछ उगाते हैं। मोहन और उनका परिवार अपने कई अन्य साथियों के साथ वहाँ पिछले कुछ वर्षों से रह रहे हैं और वे इसे एक सम्पूर्ण ऑर्गेनिक गाँव बनाना चाहते हैं। वे कुएँ से पानी खींचते हैं, अपने उगाए फल-सब्ज़ी खाते हैं, मिट्टी के घर में रहते हैं। आसपास के गाँव के लोगों को बुलाकर कई बार पारंपरिक आयोजन भी कराते हैं। जिससे वे दुनिया से जुड़े भी रहें। मोहन की दोनों बेटियाँ श्रेया और शौर्या, प्रकृति से सिर्फ जुड़ी नहीं हैं बल्कि अपने राज्य में जागरूकता बढ़ाने के लिए दौरे भी करती हैं। अपनी मंडली बनाकर लोगों को जैवविविधता, पर्यावरण, प्रकृति के लिए संदेश देती हैं। पिता की छत्रछाया में रहकर दोनों ने कला के कई रूप भी सीखे हैं जो मूर्तियों एवं पेंटिंग्स के रूप में उनके निजी गाँव की दीवारों-स्तम्भों आदि पर देखे जा सकते हैं। मोहन एवं रुक्मणि ने महसूस किया कि उनका यह जीवन उनके बच्चों में सकारात्मक परिवर्तन ला रहा है। उन्हें स्थायित्व दे रहा है, बेहतर स्वास्थ्य दे रहा है। इसे देखते हुए उन्होंने अपने बच्चों के साथ-साथ वहाँ रहने वाले अन्य बच्चों के लिए अपनी स्वयं की शिक्षा पद्धति बनाने का निर्णय लिया। अपना ख़ुद का सिलेबस जिसमें कला, शिल्पकला, बागवानी, खेती, या प्रकृति के अन्य माध्यमों से जुड़े रहने की शिक्षा दे। यह शिक्षा उन्हें प्रतियोगिता की अंधीदौड़ नहीं बल्कि अपने लिए एक सुखद भविष्य चुनना सिखाएगी।

मोहन के बारे में जानकर मुझे बस यही लगा कि ऐसे लोग शायद वापस उस ओर जा रहे हैं जहाँ से हमने तरक्की के नाम पर बिना किसी दिशा के चलना शुरू कर दिया था। हम आदिवासी या वनवासी जीवन की ओर वापस जा सकते हैं। प्रकृति के साथ रह सकते हैं। अपने बच्चों को बेहतर भविष्य दे सकते हैं जो उन्हें अरबों का बैंक बैलेंस भले ना दे लेकिन मानसिक शांति और सुख ज़रूर दे सकता है।

यह असल में प्रकृति को अहम मानकर उसके साथ रहने की एक कोशिश है।

Written by: Ankita Jain
Ex Research Associate, Author, Director at Vedic Vatica (Organic Agro Firm)

Picture Courtesy: Internet

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