“राष्ट्रसेवा और लोकसंस्कृति की धरोहर संजोना यही मेरा धर्म!
परिवार संगीत,साहित्य,यात्रायें,ग्रामसमाज यही मेरा जीवन!”

भारतीय लोक परम्परा और लोक संस्कृति की धरोहर को, अपनी सुरीली और मंत्र मुग्ध कर देनी वाली गायिकी द्वारा संरक्षित कर, उसको एक नया आयाम देने वाली मालिनी अवस्थी जी का नाम शायद ही किसी परिचय का मोहताज है।

इत्र की खुशबू में सराबोर शहर “कन्नौज” में जन्मी मालिनी अवस्थी की मधुर आवाज़ से हमारे देश की मिट्टी की खुशबू आती है। अपने लोकसंगीत के माध्यम से मालिनी जी ने अपने देश की लोक संस्कृति और परम्परा की सौंधी खुशबू को भारत में ही नहीं अपितु समूचे विश्व में बिखेर दिया है। अवधी, बुंदेली, ब्रज और भोजपुरी लोकसंगीत की विभिन्न शैलियों को मालिनी जी ने अपनी गायिकी और अनूठे प्रयोगों से एक नया स्वरूप प्रदान किया। 2016 में भारत सरकार ने उन्हें नागरिक सम्मान पद्म श्री से सम्मानित किया।

अपने बचपन में जहाँ मालिनी जी एक तरफ बहुत ही चंचल स्वभाव की थीं वहीं दूसरी ओर बहुत कम उम्र से ही रिश्तों के प्रति संवेदनशीलता और आत्मीयता उनमें कूट-कूट के भरी थी। लोक संगीत के प्रति रुझान मालिनी जी को विरासत में मिला। उनकी दादी, ताई और माँ बहुत ही अच्छा गाती थीं और उनकी दोनों ताई बहुत ही सुंदर ढोलक भी बजाया करती थीं। बचपन में जब प्रतिदिन वो अपनी दादी के साथ गंगा तट पर जातीं तो उनकी दादी ये लोकगीत हमेशा गाया करतीं “मोरी नैय्या में राम सवार नदिया धीरे बहो”। परंपरागत लोक संस्कृति और संगीत के परिवेश में ही उनका बचपन बीता। अपने ताऊ जी के सानिध्य से भी उन्हें बहुत कुछ सीखने को मिला।

मालिनी जी की लोक संगीत की यात्रा में और उनके सपनों को उड़ान देने में उनकी माँ की अहम भूमिका रही। उनका मानना है कि वो आज जो भी कुछ हैं अपनी माँ की वजह से ही हैं। उनकी माँ ने हमेशा उन्हे आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया, हमेशा उनके साथ रहीं, उनका मार्गदर्शन करती रहीं। मालिनी जी कहती हैं कि कैंसर से मृत्यु के पश्चात भी उनकी माँ, अपने आशीर्वाद स्वरूप उनकी सफलता के द्वार हमेशा खोलती रहीं।

मालिनी अवस्थी ,प्रसिद्ध हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायिका स्वर्गीय गिरिजा देवी जी की एक गंडा बांध शिष्या हैं। अपनी गायिकी को मालिनी जी ने अप्पा जी (गिरिजा देवी) के नेतृत्व में ही निखारा। उससे पहले उन्होंने उस्ताद राहत अली खान जी और शुजात अली ख़ान जी से संगीत की विधिवत शिक्षा ली।

मालिनी जी के पति सरकारी विभाग में उच्च पद पर कार्यरत रहे और उनके साथ मालिनी जी को भारत के ग्रामीण आँचल से जुड़े रहने का अवसर मिला और हमारे देश के गाँवों की सुगंधित मिट्टी की खुशबू मालिनी जी की गायिकी में प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती है। मालिनी जी का मानना है की अगर हर महिला अपने ऊपर पूरा विश्वास रखे तो कोई अंतर नहीं पड़ता कि किसने क्या कहा, उसकी अपनी पहचान उससे कोई नहीं छीन सकता। वह कहती हैं कि हर महिला को अपनी नज़रों में अपना सम्मान रखना चाहिए और उन्हें अपनी प्रतिभाओं के साथ अवश्य ही आगे भी आना चाहिए।

सादगी, सरलता, शालीनता मालिनी जी के व्यक्तित्व की पहचान है। पारिवारिक संस्कारों और मूल्यों का उनके जीवन में विशिष्ट स्थान है और यही शिक्षा उन्होंने अपने दोनों बच्चों को दी है। वह अपने पारिवारिक जीवन और अपने काम को बिल्कुल अलग रखना पसंद करती हैं। घर और परिवार उनकी हमेशा से प्राथमिकता रही है।

उनका कहना है की लोकगीतों में जीवन की वास्तविक भावनायें और संवेदनायें निहित हैं। लोकसंगीत तभी अपनी छाप छोड़ता है जब उसको हम व्यवहारिक रूप से जीते हैं। उत्तर प्रदेश के लोक कलाकारों से उन्होंने बहुत कुछ सीखा और हर दिन कुछ नया सीखकर मालिनी जी अपने को लोक कला के हर रंग में ढालती चली गयीं।

मालिनी जी का मानना है कि अगर हम बेटी के जन्म को भी एक उत्सव मान लेंगे तो “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” जैसी योजनाओं की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। उन्होंने बेटी के जन्म के कई सोहर गीत भी लिखे जिनमें से एक है
“सुनैना की हरस अपार, सिया को जनम भयो”

लोक संगीत एक साधना है, एक तपस्या है। और जिस तरह से मालिनी जी भारतीय लोक संगीत की विविधता, मधुरता और आध्यात्मिकता का परचम देश-दुनिया में फहरा रहीं हैं और युवा पीढ़ी को भी भारतीय लोक कलाओं और लोक संस्कृति के प्रति जागरूक कर रही हैं, उनके इस अथक प्रयास की जितनी भी सराहना की जाए कम है।

Written by: Tulika Srivastava

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