किसी क़रीबी की मृत्यु अवसाद पैदा कर देती है। ऐसा ही अब तक देखा-जाना था। किसी ऐसे की मृत्यु जिससे आपका कोई सीधा संबंध ना हो, भी अवसाद पैदा कर सकती है। यह अब जान रही हूँ।

सुशांत सिंह की मृत्यु को अब तेरह दिन हो गए। उनके परिजन तेरहवीं का पूजा-कर्म भी कर देंगे। सुशांत की आत्मा की शांति की दुआ हम सभी कर रहे हैं। आत्महत्या की तफ़तीश बाकायदा चल रही है। पुलिस ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट्स की ताज़ा अपडेट में बता भी दिया है कि यह आत्महत्या थी। अब भी कई लोगों के स्टेटमेंट दर्ज़ हो रहे हैं। कई तरह के सोशल मीडिया बवाल भी उठ रहे हैं। पहले अवसाद पर उठा, फिर नेपोटिज्म पर। इस सबके बीच पेज3 सोसाइटी से कई तरह की बयानबाज़ी भी हुई।

यह सब ऐसे चल रहा है जैसे सरकारी कार्यालय का प्रोसीजर हो। धीमे-धीमे ढर्रे वाला। सब अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं। लेकिन इस सबके बीच जो नया देख-महसूस कर रही हूँ वह है एक तरह का ऑब्सेशन। सुशांत की मृत्यु यदि किसी प्राकृतिक वजह से हुई होती या किसी एक्सीडेंट आदि से तो मीडिया और बयानबाजी का यह दौर ना आता। लेकिन उनकी मृत्यु अकस्मात् होने के साथ-साथ सदमा देने वाली भी बन गई।

ऐसा नहीं है कि बी-टाउन में पहले किसी कलाकार ने आत्महत्या नहीं की। पहले भी की हैं, पर सुशांत का जाना सबसे अधिक खल रहा है। शायद इसलिए क्योंकि वे सिर्फ एक कलाकार नहीं थे। वे उभरता सितारा होने के साथ-साथ कई युवाओं के आइडल भी बनते जा रहे थे। वे आदर्श के नए पैमाने गढ़ रहे थे। चकाचौंध की दुनिया में सबसे अलग वे ज्ञान-विज्ञान की घंटों तक बातें करने वाले, चाँद पर घर बनाने की ख़्वाहिश रखने वाले, लाखों पेड़ लगाने वाले, बच्चों को पढ़ाने वाले, सिस्टम में सही सिलेबस और शिक्षा की बातें करने वाले, समाज में वैचारिक परिवर्तन की आवश्यकता को समझने वाले एक आम इन्सान भी थे। हमारे बीच से उठकर वे वहाँ जा बैठे थे जहाँ बैठने के सपने देश का हर दूसरा युवा देखता है।

उससे भी ज़्यादा परेशान इस बात ने किया कि जिस इंसान ने एक ऐसा रोल अदा किया हो जिसमें वह ख़ुद अपने बच्चे को आत्महत्या की कोशिश से ज़िंदा बाहर ला रहा हो क्यों वह अपनी बारी पर यह नहीं समझ पाया कि उसका पिता भी उतना ही लाचार हो जाएगा जितना वह ख़ुद स्क्रीन पर था।
वह ख़ुद से कैसे हार गया? कितनी गहरी पीड़ा या अवसाद से वह गुज़रा कि उसे स्वयं की ह्त्या का रास्ता चुनना पडा। क्या अंतिम समय में उसके ख़्याल में यह आया होगा कि काश अब भी मुझे कोई बचा ले, जो अब हमारे मन में बार-बार आता है काश उन्हें कोई बचा सकता। दूसरों के लिए क्या कहूँ मैं ख़ुद भी अपने भीतर वही व्याकुलता महसूस कर रही हूँ। पिछले दिनों में मैंने शायद ही कोई ख़बर या विडियो या फोटो छोड़ा हो जो सुशांत से जुड़ा हो। फेसबुक एप डिलीट की, कि सोशल मीडिया से दूरी बनेगी तो मन दुरुस्त हो पाएगा। लेकिन व्हाट्सएप हो या अख़बार कहीं ना कहीं से वे सामने आ ही जाते हैं।


उनकी तस्वीरों को देखती हूँ तो वे जीवित लगते हैं। मेरे जैसे कई लोग हैं जो ये भाव महसूस कर रहे हैं। उनकी खबरें खोज-खोजकर पढ़ना। शायद हम सब कुछ ऐसा ढूँढ रहे हैं जिससे उनकी मृत्यु को जस्टिफाय कर सकें? या फिर हम अपने चहीते कलाकार के जाने के गम में डूबते जा रहे हैं। हम सभी ऐसे स्वप्न भी देख रहे हैं जिसमें वे हमें जीवित होते नज़र आते हैं, कोई उन्हें बचाता नज़र आता है, या जैसे कोई फिल्म ही चल रही हो, आप सिनेमा हॉल से निकलेंगे और पाएँगे कि सुशांत पुनः उस मोहक मुस्कान के साथ आपके सामने हैं।

मैं देख रही हूँ हर रोज़ ही किसी ना किसी का स्टेटस इस तरह का होता है जिसमें वे कहते हैं कि सुशांत की तस्वीरों/विडियो या ख़बरों से बाहर नहीं आ पा रहे हैं। उनके जाने का यकीन नहीं कर पा रहे हैं। हर रोज़ ही सुशांत का कोई नया पहलु हमारे सामने तैर रहा होता है। अगर आज वे जीवित होते तो हम उनकी इस तरह चर्चा नहीं करते। शायद तब करते जब कोई नयी फिल्म आती।

हमारे अलावा वे लोग भी जो उनके क़रीबी होने का दावा कर रहे हैं क्या वे उन्हें वाक़ई नहीं बचा सकते थे? या सुशांत के जाने ने क्या वाक़ई हमें कोई सबक दिया है? या हम फिर एक बार फिर जल्द ही ढर्रे पर लौट आएँगे। हम भूल जाएँगे कि भारत में हर घंटे एक युवा आत्महत्या करता है। हम भूल जाएँगे कि भारत में लाखों लोग मेंटल इलनेस से जूझ रहे हैं। हम भूल जाएँगे कि कोई चाहकर नेगटिव नहीं होता। हालात उसे बना देते हैं। क़रीबी होने का दावा करना और उस समय में वाक़ई किसी के क़रीब होना जब वह टूट रहा हो अब दो अलग बातें जान पड़ने लगी हैं।

सुशांत अपने कुछ विडियो में कहते दिखे कि “मेरे सिर्फ दो दोस्त हैं”, तो वे लोग कौन हैं जो उनके क़रीबी होने का, दोस्त होने का दावा कर रहे हैं। “मुझे अकेला छोड़ दो” कहने पर हमें कब अकेला छोड़ना है कब नहीं यह भी दोबारा समझना पड़ेगा। सुशांत के लिए पढ़ना ही फन था। वे कहते थे कि उनकी बातें लोगों को अजीब लगती हैं शायद इसलिए कोई उनके पास या उनके साथ ज़्यादा देर तक नहीं रह सकता। लोगों को मटीरियलिस्टिक ख़ुशी चाहिए जो शायद सुशांत नहीं दे सकते थे।

विज्ञान हो, या बच्चों की शिक्षा से जुड़ी बातें उन्हें जब एक विडियो में इस गंभीर मसले पर बोलते देखा तो एक बार फिर मन डूबने लगा सोचकर कि हमने सिर्फ एक कलाकार नहीं खोया, हमने एक ऐसा युवा खो दिया जो इस देश के हज़ारों युवाओं के लिए एक सही प्रेरणा हो सकते थे। उस ज़माने में जहाँ सिर्फ सुन्दरता, लाइफस्टाइल, फ़ैशन के दमपर एक बड़ा तबका अपनी प्रेरणा चुन रहा हो वहाँ हमने एक ऐसा सितारा खो दिया जो सही मार्गदर्शक हो सकता था, देश और समाज दोनों के लिए।

यही बात मेरी तरह शायद उन हज़ारों लोगों को कचोट रही है जो भावुकता के शिकार हैं और जो सामाजिक सुधार की उम्मीद में कुछ नए आदर्श देश के तथाकथित सितारों के बीच खोज रहे हैं। बस अब इतनी ही उम्मीद है ख़ुद से भी और दूसरों से भी कि इस पीड़ा को सिर्फ दर्द समझकर भुला नहीं देना है, बल्कि इससे कुछ अच्छे सबक लेने हैं। ताकि सुशांत से हमें जितना भी मिला, उससे सीखकर हम सुन्दर समाज और सही आदर्शों का वह पुल पूरा बाँध सकें जिसे उन्होंने बीचराह अधूरा छोड़ दिया।

Written by
Ankita Jain
Ex Research Associate, Author, Director at Vedic Vatica (Organic Agro Firm)

Picture Courtesy: Internet

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