बचपन पापा के संघर्ष की कहानियों में बीता था। उनके जीवन के छोटे-छोटे किस्से रात में सोने से पहले मां से सुनते सुनते गुजरा था। फिर जब थोड़ी समझ आई तो पापा का संघर्ष सामने देखा भी। बुंदेलखंड के सूखे क्षेत्र की ऊसर ज़मीन में किसान को ऋण और उत्पादन के बीच में भटकते देखना बहुत कुछ सिखा गया था। इन सब के बीच भी अपने आदर्शों को जीवित रखना और हमेशा सकारात्मक बने रहना ही पापा के मूल सिद्धांत थे। मुझे आज भी उनका छोड़ना और त्याग करना बहुत याद आता है। जब- जब जीवन मझधार में होता था, पापा हमेशा त्याग को अपनाने को बोलते थे। बोलते थे – ‘छोड़ो इसको जाने दो, आगे बढ़ते जाओ, मेहनत करते जाओ, कुछ अच्छा ही मिलेगा। और हां! इससे कम तो कभी नहीं मिलेगा। इस लायक तो तुम हमेशा हो।’ – उनके ये शब्द कानों में हमेशा गूँजते थे। गूँजते-गूँजते वह जीवन की ध्वनि बन गये। इसका अर्थविन्यास यह था कि ‘जो कर चुके हो, वह तुम्हारा हो गया है। उसे अपनाने की हठ मत करो। आगे बढ़ो और बेहतर प्रयास करो। और हां! सुनो, आईआईटी बहुत कठिन है। चयन ज़रूरी नहीं है, सीख लोगे जितना, उतना अच्छा रहेगा।’

दामोदर एक्सप्रेस के जनरल कोच में पूरी रात जो भावनाएँ उमड़ी थी, वह अद्भुत थी। 14 साल की उम्र में पहली बार घर छोड़ कर कहीं दूर पढ़ने जाने पर उमड़ने वाली वो भावनाएँ पापा की इन पंक्तियों से और गहरी हो जाती और भीतर से मजबूत कर देती थी। जब आपकी पढ़ाई के लिए कर्ज़ लिया गया हो तो फिर आप टूट कर मेहनत करते हैं। संघर्ष कभी मेरा नहीं था। वह हमेशा पापा का था। ऋण उन्होंने लिया था, सामाजिक प्रतिष्ठा उनकी थी। बच्चों में आदर्श, मूल्य और संस्कार डालना उनकी चुनौती थी। पापा हर 40-50 दिन में कोटा आते थे। उसी दामोदर एक्सप्रेस से, भटक तो नहीं रहा यह देखने।

पर मैं भटकता भी कैसे? आपको जिस तरीके से जीवन से जूझते देखा था, उसी तरह इरोडोव के सवालों से युद्ध जारी था। हिंदी से अब सब कुछ अंग्रेज़ी में हो गया था। लेकिन भाषा तो सिर्फ माध्यम थी, लक्ष्य कुछ और था। और जब लक्ष्य पाना ही है तो नई भाषा भी पकड़ ही ली थी। छोटे शहरों के विज्ञान के शिक्षकों ने विज्ञान की जानकारी हल्के मन से दी थी या फिर अपनी समझ में बहुत कमी थी। रसायन ने खासा तंग किया। फिर हमने भी उसमें कम ज़हर नहीं बोया। आप हमेशा दार्शनिक नहीं बने रह सकते। मस्ती भी कोई चीज होती है? उम्र का चक्कर गलियों के चक्कर लगवाएगा ही। सो हमने भी लगाया। लेकिन पहले ही कह दिया था कि उद्देश्य से समझौता नहीं होगा, सो नहीं ही हुआ। समझौते से याद आया एक किस्सा। पापा को पैसे से संघर्ष करते देखा था तो शनिवार की मेस जब बंद होती थी तो डिनर का एक समोसा उस संघर्ष को सलाम करता था। उस प्रतिज्ञा को जीवंत करने का मौका बनता था।

गलतियाँ बहुत हुई थीं, क्योंकि डर बहुत था। डर परिवार से दूर नहीं होता है। यह मन में था कि डर अभी रहेगा, कॉलेज के दोस्तों से मिलने तक। डर स्वाभाविक था कि गलत ना हो जाए कहीं। तब दवाब बहुत लेता था, परिपक्वता नहीं थी। यही हुआ और बहुत सही हुआ, गलतियों का फल मिला, पता चला कि IIST/IISER मिलेगा। चयन तो हुआ पर मेरिट क्रम में पीछे था। पापा ने फिर कहा – ‘छोड़ो, त्याग करो अभी। अभी त्याग करोगे, तभी आगे और बेहतर मिलेगा। इसलिए आगे बढ़ो, एक प्रयास और करो। इससे बेहतर मिलेगा और ये तो कहीं नहीं जाएगा। इतना तो मिलेगा ही मिलेगा, अगले साल भी।’ तब इतना दूरदर्शी नहीं था। अपनी ज़िद पर अड़ गया। नहीं! अन्य परीक्षाओं से राष्ट्र और राज्य स्तरीय अच्छे महाविद्यालय मिल रहे हैं। शायद दोबारा परीक्षा देने से डर रहा था। मैं जाऊँगा उन्हीं महाविद्यालयों में, और मैं गया भी। पापा ने आज तक सिर्फ गुस्से में देखा भर है। कभी अपनी बात नहीं मनवाई। आप दिखने में कितने भी अराजक तानाशाह हों पर निर्णय जनतांत्रिक तरीके से कैसे लेना है, यह पापा की कला थी।

अगला पड़ाव मालवा था। करीब 60 दिन किसी महाविद्यालय में रहने के बाद आपको एहसास हो कि गलती हो गई। पापा सही थे। एक प्रयास और करना था। 2-3 महीने वहाँ पढ़ कर त्याग-पत्र दे दिया और सीधे घर वापस। अर्थ की मार को दुगना करने वाला निर्णय सामने सिर्फ अनिश्चितता दिखा रहा था। फिर से वह पूरी कहानी शुरू करना आसान नहीं था। मन ने ठाना अब घर से ही पढ़ूँगा। एक प्रयास और करूँगा। लड़ाई अब मज़ेदार थी। बैठने में थोड़ा समय लगा, पर बैठने के बाद मैं उठता नहीं था। लंबे समय तक बैठा रहता था। बैठे-बैठे बनारस आईआईटी बी.एच.यू. पहुंच गया। जो अब तक के जीवन के सबसे अविस्मरणीय पल थे वह अब आए थे। अगले चार साल जो जिया और जो किया, उसने जीवन को उत्तरायण कर दिया। गंगा की खोज ने समाज के बहुत पास पहुँचा दिया था। अब जो भी करना था, वो किसी-ना-किसी तरीके से सामाजिक जीवन से जुड़ा रहे। किसी की मदद का माद्दा रहे। संघ लोक सेवा आयोग की तैयारी का निश्चय किया। पर अब अपने पैरों पर खड़े-खड़े सब करना था। आई.आई.टी. बी.एच.यू. से एक अच्छी नौकरी मिली थी। पापा से पूछा। कहीं जाकर तैयारी करना कठिन होता है। पैसे तो लगते ही है बहुत ज्यादा और सुना था कि यू.पी.एस.सी. बहुत कठिन परीक्षा है। नौकरी के साथ साथ प्रयास कर लूँगा।

पापा ने कहा और फिर वही कहा – ‘देखो त्याग करोगे तो अच्छा पाओगे। सपना देखा है तो उसको पूरा करने का प्रयास पूरे मन से करो।’ ट्रेन इस बार दामोदर से दक्षिण एक्सप्रेस हो गई थी और रास्ता दिल्ली का था, राजधानी का। बैठते समय मैंने कहा था, ‘पापा हम दोनों भाई फिर से यही सब तैयारी वगैरह में जुट रहे हैं। निश्चितता नहीं है इसमें और फिर गंभीर आर्थिक चुनौती फिर से?’ उनका उत्तर बताऊंगा नहीं, बस इतना समझ गया था कि इस देश के किसान के कंधे जवान के कंधों से भी ज्यादा मजबूत हैं। उनके उत्तर ने अजीब-सा आत्मविश्वास पैदा कर दिया था। उसी आत्मविश्वास पर यू.पी.एस.सी का पहला निर्णय लिया। गणित और भौतिक विज्ञान से ही समाज को समझना उचित लगा। उस समय दो वैकल्पिक विषय चुनने थे। गणित और भौतिक विज्ञान पर दाँव खेला। बहुत सारे मित्रों और वरिष्ठों ने समझाया कि यह उचित नहीं है। बहुत समय लग जाएगा विज्ञान के साथ।

पर विज्ञान तो ज्ञान का भंडार है। कोटा में गणित और विज्ञान के साथ काटी वो रातें अब काम आने वालीं थी। जुलाई 2012 में शुरू किया था। लगभग 75% प्रतिशत पाठ्यक्रम जब समाप्त होने वाला था। तब अचानक एक रात परीक्षा के स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन हो गया। अब एक वैकल्पिक विषय था और बाकी पहाड़-सा पाठ्यक्रम अलग। भौतिक विज्ञान और गणित में एक को चुनना था। आँख खोल कर कभी नहीं चुन पाता। बंद आँख से किताब पर हाथ रखा सामने गणित थी। गणित पर सवार हो चले। पाठ्यक्रम बदला तो विषय बदला और विषय बदला तो मौसम भी बदला और बदलते मौसम में दिल्ली रास नहीं आया। वह डेंगू मौसम और दिल्ली दोनों का दिया हुआ था, तो वापस घर को। वापस आते समय एक और विचार कौंध पड़ा, जिसने तब तक के सबसे अद्भुत और कठिन संग्राम को जन्म दिया। विचार था कि पापा कितना भी कहें, इतना वजन बनाना उचित नहीं है।

इंजीनियरिंग सेवा परीक्षा में तीस दिन बाकी थे। इतना बहुत है। अगर इसमें सफल हो गए तो कुछ पैसे का इंतजाम हो जाएगा। अपने पैरों पर रहते हुए फिर सिविल सेवा निकालेंगे। ये गलत था। अपने पैरों पर तो आप तब भी थे। पापा का तो समर्पण था ही निश्चल। उन्हें बस तुम्हारे कौशल को उसकी संपूर्णता में निखारना था। उन्होंने फिर मना किया। और मैंने फिर नहीं मानी उनकी बात। घर वापस जाने से पहले पुरानी दिल्ली में सिविल इंजिनियरिंग की पुरानी किताबें छानी। वहाँ आज भी बहुत सस्ते में बहुत कुछ मिल जाता है। अब बस अट्ठाइस दिन बचे थे। अगले अट्ठाइस दिन ऐसा चमत्कार किया जो आज तक पचा नहीं पाया हूँ। लगभग पूरा पाठ्यक्रम पढ़ा। लंबे समय तक बैठने की आदत बहुत उपयोग में आई। युद्धविराम हुआ।

एक परीक्षा के बाद करीब 10-15 दिन तक कुछ सोच नहीं पाता था। बस सोता था। अपना-अपना तरीका होता है, अध्ययन मनन का और लगन से सब होता है। अब तक सिविल सेवा की प्रारंभिक परीक्षा भी हो चुकी थी। अब लक्ष्य था मुख्य परीक्षा। लिखना अंग्रेज़ी में था। बचपन से हिंदी में लिखा था। कोटा से लेकर आईआईटी तक सब कुछ पढ़ा अंग्रेज़ी में ही था। पर लिखा नहीं था। अब लिखना था। गद्य और निबंध अंग्रेज़ी में कैसे लिखता। सामान्य विषयों के पाठ्यक्रम भी समुद्र जैसे थे। आज से इस आसमान के नीचे जो कुछ हो रहा है उस सब में से कुछ भी पूछा जा सकता है और जो आसमान के ऊपर हो रहा है वह विज्ञान और तकनीकी ज्ञान वाले हिस्से में पूछा जा सकता है। इस सब के ऊपर गणित। नहीं संभली। गणित रूठ जाती है अगर आप उसे समय ना दो तो। उसके साथ ना बैठो तो। उसकी समस्याएं ना सुनो तो। उन्हें हल ना करो तो।

और जब गणित रूठी तो यू.पी.एस.सी. भी रूठ गई। पहला प्रयास असफल हुआ। पापा बगल में ही बैठे थे पर उस चयनित सूची को देख नहीं रहे थे। मैं कुछ बोलता उससे पहले बोल पड़े – ‘बोला था ना, दुनिया की सबसे कठिन परीक्षा देने गए हो। पहले प्रयास में कभी नहीं होता है। देते रहो। दूसरे प्रयास में सफल रहोगे।’ इतिहास भी गवाह था, दूसरा प्रयास हमेशा कुछ नया लाया था। इस बार फिर एक अजीब निर्णय लिया, गणित को थोड़ा दूर किया। वरिष्ठ और मित्र फिर बोले – ‘अब सही काम किया है, समाज शास्त्र, भूगोल, इतिहास जैसा विषय लो।’- पर इलाहाबाद और काशी विश्वविद्यालय के पंडितों के सामने बैठकर भी अगर कोई बोले, नहीं लेंगे ये सब। हम अब सिविल इंजीनियरिंग लेंगे। तो समझ जाइए यह सिर्फ रणनीति नहीं थी। यह वस्तुतः स्वयं में अटूट विश्वास से उपजे निश्चय पर आधारित निर्णय था।

निर्णय लिया जा चुका था। घर पर ही रहना था। इससे बेहतर मौका नहीं मिलता तो अगले कुछ महीने कुछ कमाया और जो कमाया उसी ने यहाँ तक पहुँचाया। सकारात्मक ऊर्जा में घनघोर विश्वास रखना जीवन को गतिशील बनाए रखता है। ठहरने नहीं देता है आपको। जितनी मेहनत होती थी और जितनी ज्यादा चुनौती आने लगी थी, उतना आत्मबल बढ़ने लगा था। कमाया था दादाजी का स्नेह, 94 वर्ष की आयु में पैर टूटने के बाद चलना असम्भव होता है। दादाजी और मैं एक साथ थे। यह संघर्ष ना उनका अकेला था ना मेरा। दोनों को एक दूसरे में एक साथी नजर आया। उन्होंने कंधे पर हाथ रखा तो उनको चलने में सहयोग किया, नित्य कर्म में सहयोग किया। किताबों से परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए, जितना मैं सीखता था, उससे कहीं ज्यादा वह चाय पीते-पीते व्यावहारिक सीख दे देते थे। अब जीवन दिन-रात नहीं सिर्फ अध्ययन और दादाजी था। एक पहर पढ़ना था तो दूसरे पहर उस विशाल वृक्ष को धीरे धीरे टूटते देखना था, उनका कष्ट कम करने की हर कोशिश करना था।

जब वट वृक्ष की छाँव आप पर हो तब आप तैयारी कर सकते हैं। उस छाँव में परिपक्व हो सकते हैं। सिविल इंजीनियरिंग सा विशाल वैकल्पिक विषय उसी छाँव में पक रहा था। सामान्य अध्ययन के विषयों में व्यावहारिक कुशलता का समावेश हो रहा था। निबंध लिखने के अभ्यास में उस विशाल वृक्ष की जीवन की धारा निबंध को धाराप्रवाह बना रही थी। प्रारंभिक परीक्षा की सफलता ने राजधानी की ओर फिर मोड़ा। अन्तिम दो महीने बचे थे, मुख्य परीक्षा में। अब तैयारी को धार देना था। राजधानी पहुँचे ही थे कि त्रिलोक भैया का फोन आया – ‘यूपीएससी मुख्य परीक्षा दे रहे हो ना? मैं भी दिल्ली आ गया हूँ। साथ रहते हैं।’ – ये संयोग नहीं था। त्रिलोक बंसल अपने आप में बड़ा नाम थे, हमारे आई.आई.टी. बी.एच.यू. की विरासत के। यू.पी.एस.सी. की दुनिया में बहुत नाम था। मैंने कहा – ‘अवश्य भैया।’- मैंने अपनी आर्थिक चुनौती को देखते हुए उनको परेशान भी किया। कमरा सस्ता होने की प्राथमिकता मेरी थी उनकी नहीं। वह रेलवे के बड़े अधिकारी थे। फिर भी उन्होंने सहर्ष स्वीकारा।

अगले कुछ दिन जो भी धार मिली, उन्हीं की दी हुई धार थी वह। मित्रों का बड़ा समूह था, है भी। उन सब ने जितना सिखाया, उस पर एक हास्य महाकाव्य लिखा जा सकता है। हास्य इसलिए क्योंकि उनके सिखाने के तरीके मित्रवत और हास्य से परिपूर्ण होते थे। सब अपने आप में एक संस्थान हैं, राहुल, अमन, सिंगला, अनंत, अमित, नीरज, विभूति, रंजीत भैया… सब के सब। आज सभी किसी-ना-किसी बृहद रूप में देश की सेवा कर रहे हैं। इन्हीं के दम पर मुख्य परीक्षा संपन्न हुई और उसमें सफल भी हो गए। अब व्यक्तित्व परीक्षण अर्थात इंटरव्यू की बारी थी।

हर छोटे भाई के लिए सबसे ज्यादा प्रभावशाली व्यक्तित्व उसके बड़े भाई का होता है, सो मेरे लिए भी वही थे। इंटरव्यू के मार्गदर्शन के लिए उनसे अच्छा कौन हो सकता था? भैया ने वो सब किया जो मुझे आगे बढ़ाता, कुछ बेहतर करने के लिए प्रेरित करता। उन्होंने मेरे भीतर के डर को भगाया, वह आज भी मेरे डर को भगा रहे हैं। उन्होंने मुझे हिम्मत वाला बनाया। वह आत्मविश्वास दिया, जिससे कठिन सवालों का सामना कर पाऊँ।

दरवाजे पर बैठा था। घंटी बजते ही अंदर जाना था इंटरव्यू होने वाला था। बहुत आशंकित और अनिश्चित था। पर आत्मविश्वास बढ़ गया था। 20 दिन पहले ही 28 दिन की ताबड़तोड़ मेहनत सफल हुई थी। इंजीनियरिंग सेवा परीक्षा में चयन हो गया था। पचासवां स्थान आया था। इसी विश्वास पर सवार होकर कमरे में प्रवेश किया। पर इस सब से दूर भैलवारा, हमारा गाँव, वहाँ खेत पर बैठ पापा मुस्कुरा रहे थे। उनको पूर्ण विश्वास था। उनका विश्वास अन्तिम परीक्षाफल के दिन पता चला। सबको अनुमान था, एक-दो दिन में अंतिम चयनित सूची आने वाली है। 4 जुलाई के दिन के करीब 1 बजे मैंने फोन किया, अनावश्यक समय पर अनावश्यक बात करने के लिए पापा को फोन लगाने की हिम्मत कभी नहीं हुई। पर पापा समझ गए थे, फोन उठाते ही बोले कितनी रैंक आई? चयनित सूची में नाम देख कर अभी तक सुन्न ही था कि पापा के सवाल ने और सुन्न कर दिया – ‘आपको पता है पापा?’
‘हाँ! बस रैंक बताओ।’,
‘193 आई।’,
‘खुश रहो। घर आओ।’ – सामने मां बैठी थी। जो पिछले बीस साल से अपने जीवन के हर सोमवार को हम सबकी पढ़ाई और अच्छे जीवन के लिए जी रही थी। हम दोनों माँ-बेटे एक साथ आँखों में आँसू लाके रोए। मैं उनके चरणों में था और उनका हाथ शीश पर। वह आँसू खुशी के नहीं थे, संघर्ष के आँसू थे वह… वह आँसू उस संघर्ष के थे, जो उन्होंने अपने पूरे जीवन में किया था, सिर्फ इसलिए कि हम अच्छे इंसान बन सकें। उन्हें अब आशा थी, देश की इतनी महत्वपूर्ण परीक्षा में सफल हुआ है तो जीवन की बाकी परीक्षाएँ भी लड़ ही लेगा। पापा को फोन लगाने के करीब 50-60 दिन पहले दादाजी स्वर्ग सिधार गए थे। मुस्कुरा रहे थे वहीं से, शाबाश कभी नहीं बोलते थे। जब भी कक्षा में अच्छे अंक लाता था, तब भी बस अंदर ही अंदर गर्व करते थे। उनके चेहरे से कभी नहीं झलकता था कि आपसे खुश हैं। वह बड़े खुद्दार थे और अनुशासनप्रिय भी। अनुशासन का पालन कैसे करवाना होता है, वह जानते थे। उसी अनुशासन से एक छोटी-सी सफलता मिली थी। सफर को करीब 9-10 साल हो चुके थे। पहली बार कोटा के लिए दामोदर एक्सप्रेस में 14 साल की उम्र में बैठा था और अब 23 साल की उम्र में भारतीय पुलिस सेवा का चिन्ह कंधे पर लगाकर प्रशिक्षण के लिए निकलना था। एक नए अध्याय की शुरुआत हो चुकी थी, बस उसके पन्ने खुलने अभी बाकी थे। जीवन को जब बृहद स्वरूप में देखो तो सब छोटे छोटे हिस्से नजर आते हैं। लेकिन ये छोटे हिस्से और उनमें बसे किस्से ही भविष्य की रूपरेखा निर्धारित करते हैं। अभी सिर्फ एक परीक्षा उत्तीर्ण की थी। जिसमें अंदर प्रवेश कर कुछ नया ही समझ आया। जो सुना था वैसा कुछ भी नहीं था यहां। अब जीवन प्रतिदिन परीक्षा लेने वाला था। उत्तीर्ण होकर उत्तरदायित्व मिला था। बहुत सारी बड़ी चुनौतियां सामने इंतजार कर रही थी।

~विनय ॐ तिवारी
IPS
SP, पटना सिटी सेंट्रल

<script data-ad-client=”ca-pub-3136333229544045″ async src=”https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js”></script>

6 Comments

Leave a Comment

Your email address will not be published.